क्या फ़ोन कॉल रेट बेहद महंगे हो जाएंगे?
स्पेक्ट्रम की निलामी में एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की कमाई भारत के सरकारी खज़ाने के लिए एक अहम घटना थी।
लेकिन मोबाइल सेवा मुहैया कराने वाली कंपनियों को इसके लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। इसका परिणाम ये हो सकता है कि कॉल दरें ख़ासी बढ़ सकती हैं।
इससे भी बुरी ख़बर ये है कि इस नीलामी से भारत के टेलीकॉम सेक्टर की समस्याओं- काल नाकाम होना, बातचीत के बीच में लाइन टूटना - सुलझने नहीं जा रही हैं।
आम लोगों के लिए इस पूरे मामले से संबंधित कई अहम सवाल हैं।
स्पेक्ट्रम क्या है, आपको फिक्र क्यों हो?
मोबाइल टेलीफोन की सेवा में रेडियो तरंगों का इस्तेमाल किया जाता है। स्पेक्ट्रम को फ्रीक्वेंसीज़ में मापा जाता है, इनका आवंटन ब्लॉक्स में होता है।
प्रत्येक टेलीकॉम ज़ोन मोबाइल वहां सेवा मुहैया कराने वाली कंपनियों के लिए टेलीकॉम 'सर्किल' के तौर पर जाना जाता है।
आवंटित की गई एक निर्धारित फ्रीक्वेंसी का मतलब ये होता है कि एक इलाके में एक निश्चित संख्या में उपभोक्ताओं को टेलीकॉम सेवाएं मुहैया कराई जा सकती हैं।
भारत में किसी एक क्षेत्र में उन मोबाइल उपभोक्ताओं की सबसे अधिक संख्या रहती है जो एक ही स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल कर रहे होते हैं।
यही सबसे बड़ी वजह है कि फोन करने की कोशिशें नाकाम हो जाती हैं या फिर अक्सर ही बातचीत बीच में ही कट जाती है।
अधिक स्पेक्ट्रम का मतलब ये भी है कि मोबाइल कॉल की गुणवत्ता सुधर सकती है और इससे तेज रफ्तार से बेहतर डाटा सेवाओं के मिलने की भी संभावना है।
वास्तव में क्या हो रहा है नीलाम?
सरकार किसी सर्किल विशेष में फ्रीक्वेंसीज़ के निर्धारित ब्लॉक के इस्तेमाल के लिए लाइसेंस की नीलामी करती है।
स्पेक्ट्रम की मौजूदा नीलामी में 800, 900 और 1800 मीटर हर्ट्ज़ के बैंड्स की फ्रीक्वेंसी शामिल हैं।
टेलीकॉम कंपनियों के 20 साल के लाइसेंस खत्म होने जा रहे हैं और इसीलिए इन फ्रीक्वेंसीज़ की दोबारा से नीलामी की जा रही है। इनमें 2100 मीटर हर्ट्ज़ बैंड की फ्रीक्वेंसी भी है जिससे नए स्पेक्ट्रम जारी होंगे।
सभी बैंड अलग, 'कीमत' भी अलग?
इन फ्रीक्वेंसी बैंड्स की अलग अलग विशेषताएं हैं। कम फ्रीक्वेंसी वाले सिग्नल लंबी दूरी तय कर सकते हैं। इसका मतलब ये भी हुआ कि कम मोबाइल टावरों को जरूरत होगी।
इसलिए 900 मीटर हर्ट्ज़ का स्पेक्ट्रम जिससे थ्री जी सेवाएं दी जा सकती हैं, महत्वपूर्ण हो जाता है। जाहिर है इसकी कीमत अधिक होगी और ऊंची बोली लगेगी।
इस फ्रीक्वेंसी बैंड का आवंटन सबसे पहले किया गया था। यह तब की बात है जब 90 के दशक के मध्य में मोबाइल टेलीफोन सेवाओं की शुरुआत हुई थी।
बदलना पड़ सकता है मोबाइल ऑपरेटर
अगर आपका मोबाइल ऑपरेटर उस स्पेक्ट्रम को फिर से नहीं जीत पाता है जो 20 साल पहले उसे मिला था, तो कुछ टेलीकॉम सर्किलों में उसका कारोबार बंद हो सकता है।
इसका मतलब ये हुआ कि आपको अपना मोबाइल ऑपरेटर बदलना होगा। नतीजतन प्रतिस्पर्धा में कमी आ सकती है और कॉल दरें महंगी हो सकती हैं।
किसी भी सूरत में नीलामी की ऊंची बोली के कारण मोबाइल फोन की कॉल दरें बढ़ सकती हैं।
हालांकि ये जरूरी नहीं कि टेलीकॉम कंपनियों पर इस नीलामी का असर फौरी तौर पर पड़ने वाला है क्योंकि उन्हें इसकी कीमत चुकाने के लिए वक्त मिलेगा।
कौन सी कंपनियां प्रभावित?
जिन स्पेक्ट्रम की फिलहाल नीलामी हो रही है, उनमें ज्यादातर एयरटेल, वोडाफोन, आइडिया और रिलायंस टेलीकॉम के पास हैं।
इनके लाइसेंस जल्द ही खत्म होने जा रहे हैं। अगर वे अपना स्पेक्ट्रम बरकरार नहीं रख पाए, तो कुछ टेलीकॉम सर्किलों में उनकी सेवाएं बंद हो सकती हैं।
टेलीकॉम बाज़ार में ऊंचे दांव लगे हुए हैं और मोबाइल कंपनियों के पास खोने के लिए बहुत कुछ है। इसलिए नीलामी में ऊँची बोली लग रही है।
वे अपना स्पेक्ट्रम अपने प्रतिस्पर्द्धी के हाथों गंवा सकते हैं या फिर इस बाजार का कोई नया खिलाड़ी भी उनसे ये स्पेक्ट्रम ले सकता है।
रिलायंस जियो एक कंपनी है जिसके पास पहले से देश भर में फोर-जी सेवाएं देने के लिए स्पेक्ट्रम है।
उस स्पेक्ट्रम क्या जिसकी नीलामी नहीं?
भारत में उपलब्ध स्पेक्ट्रम का एक बड़ा हिस्सा सुरक्षा के लिए आरक्षित है।
भारत के सशस्त्र बल कई तरह के साजोसामान इस्तेमाल करते हैं और उनमें कई तरह की फ्रीक्वेंसी इस्तेमाल की जाती है।
2100 मीटर हर्ट्ज़ बैंड पहले रक्षा इस्तेमाल के लिए आरक्षित थी लेकिन उसके एक हिस्से को बाज़ार के लिए छोड़ा जा रहा है।
स्पेक्ट्रम की इतनी मांग क्यों?
इसके तीन कारण हैं। पहला ये कि भारत में चीन के बाद दुनिया में दूसरे नंबर पर सबसे ज्यादा मोबाइल फोन धारक हैं।
दूसरा, किसी अन्य देश की तुलना में भारत में किसी टेलीकॉम सर्किल में मोबाइल सेवा मुहैया कराने वाली कंपनियों की संख्या सबसे ज्यादा है।
इसका मतलब हुआ कि एक स्पेक्ट्रम के लिए यहां कहीं ज्यादा प्रतिस्पर्धा है। तीसरा कारण ये है कि कई देशों की तुलना में भारत में कम स्पेक्ट्रम उपलब्ध है।
यहां बड़े पैमाने पर स्पेक्ट्रम रक्षा इस्तेमाल के लिए रिज़र्व रखी गई हैं।
नेटवर्क समस्या सुलझेगी?
ऑपरेटर के अधिक स्पेक्टरम खरीदने से भी नेटवर्क समस्या सुलझने के आसार नहीं हैं।
2015 की नीलामी से ज्यादा बदलाव नहीं होने वाले हैं क्योंकि ज्यादातर मौजूदा स्पेक्ट्रम लाइसेंस खत्म होने जा रहे हैं।
दूसरा, अगर कंपनियां इन स्पेक्ट्रम को वापस पाने में नाकाम रहीं, तो कुछ सर्किलों में उनकी सेवाएं बंद हो जाने का खतरा है, इससे मोबाइल सेवाओं की गुणवत्ता में भी गिरावट आएगी।
इसलिए नीलामी की जरूरत सेवाओं को जारी रखने के लिए थी।
2100 मीटर हर्ट्ज़ बैंड के कुछ स्पेक्ट्रम को जारी किए जाने के बाद भीड़ भाड़ वाले नेटवर्क में सेवाओं के सुधार की संभावना जगी है।
लेकिन मोबाइल धारकों की बढ़ती संख्या, ख़ासकर इंटरनेट यूजर की बढ़ती तादाद के कारण मोबाइल सेवाओं की गुणवत्ता में बेहतरी होने की बजाय गिरावट देखी जा सकती है।
2015 में कई मोबाइल पर कॉल करने की कोशिशें नाकाम होती रहेंगी या फिर बातचीत की लाइन बीच में टूटती रहेगी।
क्या कॉलें दर बेहद महंगी होंगी?
ऐसे वक्त में जब स्पेक्ट्रम नीलामी में कंपनियों को एक लाख करोड़ रुपये की चपत लग रही है तो मोबाइल कॉल रेट महंगा हो सकता है।
इससे मोबाइल फोन पर एक ग्राहक की तरफ से खर्च की जाने वाली औसत रकम के बढ़ने की संभावना है। भारत में फिलहाल यह राशि दुनिया में सबसे कम 120 रुपये है।
तस्वीर का दूसरा पहलू ये भी है कि मोबाइल के इस्तेमाल में कमी आ सकती है और ग्राहक अपने खर्च में कटौती कर सकते हैं।
ऊँची प्रतिस्पर्धा के कारण शुरुआत में कंपनियां कॉल रेट बढ़ाने से बचेंगी। लेकिन इससे उनके मुनाफे पर असर पड़ेगा।
इसका एक नतीजा ये भी हो सकता है कि वे अधिक मुनाफे वाले सर्किल और उपभोक्ताओं की तरफ रुख करें। इसका नुकसान ग्रामीण इलाकों और कम मुनाफे वाले क्षेत्रों को उठाना पड़ सकता है।
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि ये सब हालात तुरंत पैदा होंगे क्योंकि लाइसेंस फीस चुकाने के लिए कंपनियों के पास काफी वक्त है।
'टूजी स्पेक्ट्रम घोटाला' क्या है?
पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा
साल 2008 में 122 टूजी लाइसेंस 2001 की कीमतों पर बिना किसी नीलामी के पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर बेचे गए थे।
सीबीआई का आरोप था कि कुछ कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए रिश्वत दी गई।
सीएजी के अनुसार अगर इन स्पेक्ट्रम को नीलाम किया गया होता तो 2010 की स्पेक्ट्रम कीमतों के आधार पर 2008 की नीलामी में 1,76,000 करोड़ रुपये सरकारी खजाने में जमा हुए होते।
इस 'घोटाले' के कारण सुप्रीम कोर्ट ने 2012 में 122 लाइसेंस रद्द कर दिए। ये वही स्पेक्ट्रम थे जो 2008 में आवंटित किए गए थे।
उस वक्त के दूरसंचार मंत्री ए राजा को 'टूजी घोटाले' में अपनी भूमिका के लिए 15 महीने तिहाड़ जेल में बिताने पड़े।
स्पेक्ट्रम की निलामी में एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की कमाई भारत के सरकारी खज़ाने के लिए एक अहम घटना थी।
लेकिन मोबाइल सेवा मुहैया कराने वाली कंपनियों को इसके लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। इसका परिणाम ये हो सकता है कि कॉल दरें ख़ासी बढ़ सकती हैं।
इससे भी बुरी ख़बर ये है कि इस नीलामी से भारत के टेलीकॉम सेक्टर की समस्याओं- काल नाकाम होना, बातचीत के बीच में लाइन टूटना - सुलझने नहीं जा रही हैं।
आम लोगों के लिए इस पूरे मामले से संबंधित कई अहम सवाल हैं।
स्पेक्ट्रम क्या है, आपको फिक्र क्यों हो?
मोबाइल टेलीफोन की सेवा में रेडियो तरंगों का इस्तेमाल किया जाता है। स्पेक्ट्रम को फ्रीक्वेंसीज़ में मापा जाता है, इनका आवंटन ब्लॉक्स में होता है।
प्रत्येक टेलीकॉम ज़ोन मोबाइल वहां सेवा मुहैया कराने वाली कंपनियों के लिए टेलीकॉम 'सर्किल' के तौर पर जाना जाता है।
आवंटित की गई एक निर्धारित फ्रीक्वेंसी का मतलब ये होता है कि एक इलाके में एक निश्चित संख्या में उपभोक्ताओं को टेलीकॉम सेवाएं मुहैया कराई जा सकती हैं।
भारत में किसी एक क्षेत्र में उन मोबाइल उपभोक्ताओं की सबसे अधिक संख्या रहती है जो एक ही स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल कर रहे होते हैं।
यही सबसे बड़ी वजह है कि फोन करने की कोशिशें नाकाम हो जाती हैं या फिर अक्सर ही बातचीत बीच में ही कट जाती है।
अधिक स्पेक्ट्रम का मतलब ये भी है कि मोबाइल कॉल की गुणवत्ता सुधर सकती है और इससे तेज रफ्तार से बेहतर डाटा सेवाओं के मिलने की भी संभावना है।
वास्तव में क्या हो रहा है नीलाम?
सरकार किसी सर्किल विशेष में फ्रीक्वेंसीज़ के निर्धारित ब्लॉक के इस्तेमाल के लिए लाइसेंस की नीलामी करती है।
स्पेक्ट्रम की मौजूदा नीलामी में 800, 900 और 1800 मीटर हर्ट्ज़ के बैंड्स की फ्रीक्वेंसी शामिल हैं।
टेलीकॉम कंपनियों के 20 साल के लाइसेंस खत्म होने जा रहे हैं और इसीलिए इन फ्रीक्वेंसीज़ की दोबारा से नीलामी की जा रही है। इनमें 2100 मीटर हर्ट्ज़ बैंड की फ्रीक्वेंसी भी है जिससे नए स्पेक्ट्रम जारी होंगे।
सभी बैंड अलग, 'कीमत' भी अलग?
इन फ्रीक्वेंसी बैंड्स की अलग अलग विशेषताएं हैं। कम फ्रीक्वेंसी वाले सिग्नल लंबी दूरी तय कर सकते हैं। इसका मतलब ये भी हुआ कि कम मोबाइल टावरों को जरूरत होगी।
इसलिए 900 मीटर हर्ट्ज़ का स्पेक्ट्रम जिससे थ्री जी सेवाएं दी जा सकती हैं, महत्वपूर्ण हो जाता है। जाहिर है इसकी कीमत अधिक होगी और ऊंची बोली लगेगी।
इस फ्रीक्वेंसी बैंड का आवंटन सबसे पहले किया गया था। यह तब की बात है जब 90 के दशक के मध्य में मोबाइल टेलीफोन सेवाओं की शुरुआत हुई थी।
बदलना पड़ सकता है मोबाइल ऑपरेटर
अगर आपका मोबाइल ऑपरेटर उस स्पेक्ट्रम को फिर से नहीं जीत पाता है जो 20 साल पहले उसे मिला था, तो कुछ टेलीकॉम सर्किलों में उसका कारोबार बंद हो सकता है।
इसका मतलब ये हुआ कि आपको अपना मोबाइल ऑपरेटर बदलना होगा। नतीजतन प्रतिस्पर्धा में कमी आ सकती है और कॉल दरें महंगी हो सकती हैं।
किसी भी सूरत में नीलामी की ऊंची बोली के कारण मोबाइल फोन की कॉल दरें बढ़ सकती हैं।
हालांकि ये जरूरी नहीं कि टेलीकॉम कंपनियों पर इस नीलामी का असर फौरी तौर पर पड़ने वाला है क्योंकि उन्हें इसकी कीमत चुकाने के लिए वक्त मिलेगा।
कौन सी कंपनियां प्रभावित?
जिन स्पेक्ट्रम की फिलहाल नीलामी हो रही है, उनमें ज्यादातर एयरटेल, वोडाफोन, आइडिया और रिलायंस टेलीकॉम के पास हैं।
इनके लाइसेंस जल्द ही खत्म होने जा रहे हैं। अगर वे अपना स्पेक्ट्रम बरकरार नहीं रख पाए, तो कुछ टेलीकॉम सर्किलों में उनकी सेवाएं बंद हो सकती हैं।
टेलीकॉम बाज़ार में ऊंचे दांव लगे हुए हैं और मोबाइल कंपनियों के पास खोने के लिए बहुत कुछ है। इसलिए नीलामी में ऊँची बोली लग रही है।
वे अपना स्पेक्ट्रम अपने प्रतिस्पर्द्धी के हाथों गंवा सकते हैं या फिर इस बाजार का कोई नया खिलाड़ी भी उनसे ये स्पेक्ट्रम ले सकता है।
रिलायंस जियो एक कंपनी है जिसके पास पहले से देश भर में फोर-जी सेवाएं देने के लिए स्पेक्ट्रम है।
उस स्पेक्ट्रम क्या जिसकी नीलामी नहीं?
भारत में उपलब्ध स्पेक्ट्रम का एक बड़ा हिस्सा सुरक्षा के लिए आरक्षित है।
भारत के सशस्त्र बल कई तरह के साजोसामान इस्तेमाल करते हैं और उनमें कई तरह की फ्रीक्वेंसी इस्तेमाल की जाती है।
2100 मीटर हर्ट्ज़ बैंड पहले रक्षा इस्तेमाल के लिए आरक्षित थी लेकिन उसके एक हिस्से को बाज़ार के लिए छोड़ा जा रहा है।
स्पेक्ट्रम की इतनी मांग क्यों?
इसके तीन कारण हैं। पहला ये कि भारत में चीन के बाद दुनिया में दूसरे नंबर पर सबसे ज्यादा मोबाइल फोन धारक हैं।
दूसरा, किसी अन्य देश की तुलना में भारत में किसी टेलीकॉम सर्किल में मोबाइल सेवा मुहैया कराने वाली कंपनियों की संख्या सबसे ज्यादा है।
इसका मतलब हुआ कि एक स्पेक्ट्रम के लिए यहां कहीं ज्यादा प्रतिस्पर्धा है। तीसरा कारण ये है कि कई देशों की तुलना में भारत में कम स्पेक्ट्रम उपलब्ध है।
यहां बड़े पैमाने पर स्पेक्ट्रम रक्षा इस्तेमाल के लिए रिज़र्व रखी गई हैं।
नेटवर्क समस्या सुलझेगी?
ऑपरेटर के अधिक स्पेक्टरम खरीदने से भी नेटवर्क समस्या सुलझने के आसार नहीं हैं।
2015 की नीलामी से ज्यादा बदलाव नहीं होने वाले हैं क्योंकि ज्यादातर मौजूदा स्पेक्ट्रम लाइसेंस खत्म होने जा रहे हैं।
दूसरा, अगर कंपनियां इन स्पेक्ट्रम को वापस पाने में नाकाम रहीं, तो कुछ सर्किलों में उनकी सेवाएं बंद हो जाने का खतरा है, इससे मोबाइल सेवाओं की गुणवत्ता में भी गिरावट आएगी।
इसलिए नीलामी की जरूरत सेवाओं को जारी रखने के लिए थी।
2100 मीटर हर्ट्ज़ बैंड के कुछ स्पेक्ट्रम को जारी किए जाने के बाद भीड़ भाड़ वाले नेटवर्क में सेवाओं के सुधार की संभावना जगी है।
लेकिन मोबाइल धारकों की बढ़ती संख्या, ख़ासकर इंटरनेट यूजर की बढ़ती तादाद के कारण मोबाइल सेवाओं की गुणवत्ता में बेहतरी होने की बजाय गिरावट देखी जा सकती है।
2015 में कई मोबाइल पर कॉल करने की कोशिशें नाकाम होती रहेंगी या फिर बातचीत की लाइन बीच में टूटती रहेगी।
क्या कॉलें दर बेहद महंगी होंगी?
ऐसे वक्त में जब स्पेक्ट्रम नीलामी में कंपनियों को एक लाख करोड़ रुपये की चपत लग रही है तो मोबाइल कॉल रेट महंगा हो सकता है।
इससे मोबाइल फोन पर एक ग्राहक की तरफ से खर्च की जाने वाली औसत रकम के बढ़ने की संभावना है। भारत में फिलहाल यह राशि दुनिया में सबसे कम 120 रुपये है।
तस्वीर का दूसरा पहलू ये भी है कि मोबाइल के इस्तेमाल में कमी आ सकती है और ग्राहक अपने खर्च में कटौती कर सकते हैं।
ऊँची प्रतिस्पर्धा के कारण शुरुआत में कंपनियां कॉल रेट बढ़ाने से बचेंगी। लेकिन इससे उनके मुनाफे पर असर पड़ेगा।
इसका एक नतीजा ये भी हो सकता है कि वे अधिक मुनाफे वाले सर्किल और उपभोक्ताओं की तरफ रुख करें। इसका नुकसान ग्रामीण इलाकों और कम मुनाफे वाले क्षेत्रों को उठाना पड़ सकता है।
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि ये सब हालात तुरंत पैदा होंगे क्योंकि लाइसेंस फीस चुकाने के लिए कंपनियों के पास काफी वक्त है।
'टूजी स्पेक्ट्रम घोटाला' क्या है?
पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा
साल 2008 में 122 टूजी लाइसेंस 2001 की कीमतों पर बिना किसी नीलामी के पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर बेचे गए थे।
सीबीआई का आरोप था कि कुछ कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए रिश्वत दी गई।
सीएजी के अनुसार अगर इन स्पेक्ट्रम को नीलाम किया गया होता तो 2010 की स्पेक्ट्रम कीमतों के आधार पर 2008 की नीलामी में 1,76,000 करोड़ रुपये सरकारी खजाने में जमा हुए होते।
इस 'घोटाले' के कारण सुप्रीम कोर्ट ने 2012 में 122 लाइसेंस रद्द कर दिए। ये वही स्पेक्ट्रम थे जो 2008 में आवंटित किए गए थे।
उस वक्त के दूरसंचार मंत्री ए राजा को 'टूजी घोटाले' में अपनी भूमिका के लिए 15 महीने तिहाड़ जेल में बिताने पड़े।
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